Sunday, April 3, 2022

संगेमरमरी याद का सफ़र

 संगेमरमरी याद का सफ़र

(यात्रा संस्मरण)


यादों के होते हैं कई रंग, मगर क्या आपने संगेमरमरी रंग के बारे में सुना है? चलिये हम आपको बताते हैं, हम यानी अनुरीत।  अनुजा और रीतेश, अनुरीत। 


वैसे 'संगेमरमर' पढ़ते ही आपके कानों में "सुनो न संगेमरमर की ये मीनारें, कुछ भी नहीं आगे तुम्हारे" ये ख़ूबसूरत गीत ज़रुर गूँजने लगा होगा। इस गीत के ज़िक़्र ने एक रोमानियत की लहर आपके ज़हन में छेड़ दी होगी। हम यही तो चाहते थे कि अनुरीत की इस दास्तान को सुनते हुए आप पर रोमानियत छाई रहे, आख़िर प्यार और शादी के बन्धन से बंधे दो दिलों की सैर की दास्तान है ये। 


शादी के तीसरे साल को पूरा होने से 

दो माह पहले, एक लंबी यात्रा प्लान की। 15-20 दिन की छुट्टी 6 महीने की गुल्लक में जुड़ गई थी, क्योंकि नया-नया जॉब बदला था और 6 महीनों में इक्का-दुक्का दिन ही ऑफिस न जा पाया था मैं। ऑफिस हैड की त्यौरियाँ तो चढ़ी, मगर ज़्यादा कुछ कह नहीं पाया और अप्रूव कर दिया था।


दरअसल यह यात्रा, नाते-रिश्तेदारों से हमारे मिलने-जुलने और इसी बहाने, 

कई शहरों के भ्रमण करने के मक़सद से हुई थी। मुम्बई से चले तो अपने हृदय प्रदेश यानी मध्य-प्रदेश की राजधानी, भोपाल में पहला पड़ाव हुआ। कॉलेज के दिनों की यादें भी ताज़ा हुईं। 


वहाँ से चले तो झाँसी की रानी सा कमर कसते हुए, दतिया के पीताम्बरा पीठ का आशीर्वाद सर रखते हुए, ग्वालियर के किले की शान से चमकते हुए, रिश्तेदारों से मेल-मिलाप करते हुए, उस ऐतिहासिक शहर में पहुँचे जहाँ की यादें संगेमरमरी हैं। 


जी हाँ आपने सही पहचाना, ऐतिहासिक शहर आगरा। आगरा का यह पहला और अब तक का हमारा एकमात्र अनुभव। आगरा शहर ने एक सलोना रिश्ता भी जोड़ दिया, मेरी मुँहबोली दीदी के रूप में, ज्योति दी की शानदार मेज़बानी, दिलदारी और प्रेमपूर्ण मदद से आगरा का हमारा प्रवास, बड़ा ही सुविधाजनक और यादगारी रहा। 


जब हम अकेले कहीं भ्रमण कर रहे होते हैं तो इस बात की ज़्यादा फ़िक्र और तैयारी नहीं करनी पड़ती कि आना-जाना कैसे हो, इधर पहले जाओ, या उधर पहले जाओ। मगर जब परिवार हो साथ, ख़ासकर महिलाएँ, यानी अनुरीत की अनुजा, तो साज़ो सामान, इंतज़ामात का ख़ास ख़्याल रखना ज़रूरी हो जाता है। तो हमने भी बख़ूबी रखा, अपनी ज्योति दीदी के सौजन्य से।


अपने दो दिन के प्रवास में, एक पूरा दिन हमने आगरा का अद्भुत लाल क़िला घूमा, जिसके बारे में गाइड ने बताया कि आधे से ज़्यादा क़िला तो बन्द ही रखा गया है और पब्लिक को वहाँ प्रवेश नहीं। लेकिन जितना देखा, वह भी कम नहीं था। मुग़लों की सल्तनत यूँ तो बदनाम भी बहुत है, पर अक़बर के बारे में हमने दीन ए इलाही पढ़ा, सुना हुआ है। 

लाइट ऐंड साउंड शो का लुत्फ़ उठाते, ये सब देखते-दिखाते, फोटोज़ खिंचवाते हम पहुँचे वैशविक धरोहर और सात अजूबों में शुमार मशहूर ताजमहल पर। प्रेम के प्रतीक माने जाने वाले इस ऐतिहासिक मक़बरे के बाहर, हम भी शामिल हुए अपनी यादगार क्लिक करवाने में। बाक़ायदा फ़ोटोग्राफ़र की मदद से कुछ प्रोफेशनल क्वालिटी वाली तस्वीरें मिल गईं, जो बड़े जतन से सहेज रखी हैं, न सिर्फ़ सॉफ़्ट कॉपी, बल्कि प्रिंटेड हार्ड कॉपियाँ भी।


यादों के इस संगेमरमरी रंग में रंग कर, पान पेठा, अंगूरी पेठा, बड़ा पेठा, छोटा पेठा, चॉकलेट पेठा, आगरा के तरह-तरह के पेठों को चख कर, ख़रीद कर, रख कर, पहला दिन हमने इस तरह बिताया। इस लुत्फ़ में पता ही नहीं चला कि कब हमने अपना लगेज और वज़नी कर लिया। पता तो तब चला जब, स्टेशन पर सामान उठाना पड़ा। शाम को दीदी के घर पर लज़्ज़तदार दावत और गीत-संगीत ने समां बंधा। 


अगले दिन आगरा से कुछ 40 किमी दूर फ़तेहपुर सीकरी भी घूमने गए। कहते हैं, यह लम्बे वक़्त तक उनकी राजधानी थी। मुग़लों ने अपने वजूद के कितने ही ऐसे भव्य निर्माण बना के छोड़े हैं हिन्दोस्तान में। हर इमारत अपना एक इतिहास लिये है। चाहे बुलन्द दरवाज़ा हो, जो कि दुनिया का सबसे ऊँचा प्रवेश द्वार माना जाता है, या सलीम चिश्ती की दरगाह जो अजमेर शरीफ़ के बाद की पीढ़ी के सूफ़ी सन्त थे और बादशाह अक़बर की जिन पर अथाह श्रद्धा थी।  


यहाँ भी वास्तुकला के अजूबों को निहारते, इतिहास के झरोखों से दास्तानों में झांकते, हमने यादें क्लिक की और फिर चल दिये अपने आगरी ठिकाने पर वापस। ज्योति दीदी का ज़िक़्र और शुक्रिया, जितनी बार करूँ, कम है। यात्रा में यह आगरा का पड़ाव, सबसे ख़ास बन गया, क्योंकि जब आप पहली बार किसी से मिलें और अपनेपन के साथ आपको इतनी शानदार ख़ातिरदारी मिले तो ऐसा लगता है, मानो यह शहर आगरा, न जाने कब से मेरा रिश्तेदार था, बस मिला अब जा के।


शादी के 3रे बरस में यह हमारी सबसे लंबी यात्रा थी, जिसे हमने कई पड़ावों में, कई शहरों में ठहर कर, फिर बढ़ कर तय किया। यह अनुरीत की सबसे लंबी रेल यात्रा भी निश्चित ही होगी। यानी अगर सारे किलोमीटर जोड़ दिये जायें तो 2-3 हज़ार किलोमीटर तो हमने तय कर ही लिये होंगे। 

इसके बाद हम उद्योग नगरी महानगर कानपुर गए, और वहाँ से प्रयागराज (जिसे ज़माने से इलाहाबाद कहा जाता रहा) के पावन त्रिवेणी संगम की सैर करने के साथ-साथ संयोग से दाम्पत्य के सबसे बड़े पर्व करवा चौथ को भी गंगा माई की नगरी में मनाया।

आगे, उत्तर प्रदेश में एक छोटे से स्टेशन कृष्ण शिला से लगे हुए मध्य प्रदेश के सिंगरौली नगर में भी रिश्तेदारों का आशीर्वाद और आतिथ्य लेते हुए नर्मदा माई के तीरे, गृहनगर जबलपुर पहुँचे और इस तरह एक लंबी यात्रा का सुखद अंत हुआ।


जब जबलपुर से मुम्बई लौटे तो मायानगरी की भीड़ ने एहसास दिलाया कि, ज़िन्दगी के सारे फैलाव यहाँ सिमटने से लगते हैं। जब कभी यह कसाव ज़्यादा कसमसए तो तस्वीरों में क़ैद लम्हों के पँखों को टटोलना; रिहा रिहा सी एक उड़ान मिलेगी जो कुछ देर हक़ीक़त की सख़्त चट्टानों को संगेमरमरी एहसास दे देगी।

तो अब आप समझे न, कि इस यादगार यात्रा का रंग संगेमररी किस तरह हुआ अनुरीत के लिये। 


आगरा की यात्रा, ताजमहल की यात्रा कुछ ऐसा अविस्मरणीय रंग छोड़ जाती है दिल पर कि इसे हम संगेमरमरी याद न कहें तो क्या कहें। 

इस याद को हम फिर एक नई शक़्ल देंगे, अपनी बिटिया आशना अनुरीत के साथ, जब उसे भी आगरा की यात्रा करवायेंगे। 


फ़िलहाल वो गुगल पर चित्र देख कर पहचानते हुए, चिड़िया सी चहक के कहती है, देखिये माँ, देखिये पापा "ताजमहल"!


~अनुरीत | AnuReet

     [अनुजा-रीतेश]

Tuesday, November 16, 2021

"आशा के आसमान का टिमटिमाता तारा"


आशा से आसमान टिका है, यही पॉज़िटिविटी लिये, छोटे शहर के जवाँ लड़के, महानगर पहुँचते हैं। कुछ, यहाँ-वहाँ दिन गुज़ारते हैं, कुछ तो न जाने कहाँ-कहाँ...पर कुछ हम जैसे मध्यमवर्गीय, जिन पर क़िस्मत भी मध्यम-मार्ग की तर्ज़ पर तोल-मोल के मेहरबान होती है। महीने के बीचों बीच, जब क़िस्मत, कर्म, धर्म की शाला के बाहर ला खड़ा करती है तो किसी तरह हालात से लोकल की पटरी बिठाते हुये, क़िस्मत के नए खेल खेलते हुये, झमाझम बरसती बारिश में खुली छत वाले मकान की तरह हम, एक 'आस' के पास पहुँचते हैं। जिसकी पनाह एक ऐसी आशा से भरी थी, जिसे लिये हम चले तो थे अपने छोटे शहर से, लेकिन जो चमकी अब जा के थी सन् दो हज़ार तीन की एक जुलाई को !
अजनबी शहर में, अजनबी एहसासों के बीच, एक अन्जाने से अपनेपन के साथ, हम आशा आँटी के पेइंग गैस्ट बन गये।

हमारी ये आशा, जिन्हें हम आँटी कहते थे, नैन्सी वसाहत (कॉम्प्लेक्स) के बी-ब्लॉक के चौथे माले की जगत भाभी तो थीं ही, बाक़ी जगत भी इनको भाभी ही बुलाता था, चाहे इनकी नातिन हो या इनकी अपनी बेटी। सबके लिये वो भाभी ही थीं, अरे उनका नाम ही भाभी पड़ गया था।

आज के कोरोना काल में जहाँ सगे रिश्ते भी मुँह फेरने को मजबूर हैं, ऐसे में आँटी जैसी भलमनसाहत बरबस ही याद आ जाती है। उम्रदराज़ हो कर भी उन सा एक्टिव कोई न था। कच्छी-गुजराती हो कर भी बम्बईया हिन्दी में निपुण थीं। सुबह के खाखरे, चाय के पहले गुजराती अख़बार बिना पढ़े उनका सवेरा पूरा नहीं होता था। यही वजह थी कि दीन-दुनिया की सारी ख़बर उनको रहती थी। यहाँ तक कि बॉलीवुड के बारे में उनका जनरल नॉलेज अप-टू-डेट रहता था।

घर-मालिक से जो निर्देश आते हैं वो तो आते ही थे, मगर ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जब घर में कुछ बने और परवाह का निवाला हम तक न पहुँचे। हम भले लिहाज़ में कतरायें, मगर आँटी का ममतामयी दिल, औपचारिकताओं को पिघला सा देता था। घुलने-मिलने का आलम ये हुआ कि हम भी दिन में दो टाइम, भोजन के बाद नियमित छास पीने के आदी हो गये।

आँटी के सरल स्वभाव ने चौथे फ्लोर के बाक़ी तीनों घरों के बाशिंदों का भी मन जीता हुआ था। बम्बई में यह आमतौर पर कम देखा जाता है। पर आँटी सामने वाले पड़ौसी के बच्चे के लिये अगर दादी थीं तो बगल के एक घर में उनको बड़े बुज़ुर्ग की तरह आदर-सत्कार मिलता था और दूसरे घर में उन्हें हमारी तरह आँटी का दर्जा दिया जाता था।

हमारे पेइंग गैस्ट स्टेटस के कुछ ही समय बाद, एक बार जब उनको अपने कुटुंब में शादी-ब्याह के कार्यक्रम में जाना पड़ा, तो उन्हें थोड़ी चिन्ता हुई कि कैसे बाहर वालों के हवाले पूरी गृहस्थी छोड़ कर जायें। लेकिन जो थोड़ी बहुत साख हमारी बनी, उसके आसरे वो आख़िर चली गईं। 5-6 दिन बाद जब लौटीं, तो उनने पाया कि सब कुछ जस का तस है, घर चकाचक साफ़-सुथरा है, यहाँ तक कि, किचन की सिंक के सारे बर्तन तरतीब से सजे, धजे, जमे हैं। उनकी आँखें चमक उठीं, आख़िर उनकी आशा के अनुरूप हम कुछ कुछ खरे उतरे।


आँटी का सेंस ऑफ ह्यूमर भी जब-तब जागता रहता था। कोई गुदगुदाती बात कह के किसी अल्हड़ कमसिन लड़की की तरह दांतों तले जीभ दबा के दबी सी हँसी भी आ जाती थी। भारद्वाज अंकल  को याद करते हुए बताती थीं कि, "आपका अंकल कहता था, रे तारा (आँटी का मायके का नाम) तेरा नाम आशा रख देते हैं, नहीं तो लोग तेरे को शॉर्ट में टी बी जोशी बुलायेंगे। मैं बोली, नहीं रे बाबा, मेरे को टीबी नहीं बनना, मैं ए बी जोशी ही ठीक हूँ।" हम उनकी इस बात पर खिलखिला उठते।

ख़ुशनसीब हैं वो जिनको
आबोदाना मिला है
इस शहर में सर छुपाने का,
ठिकाना मिला है

मुम्बई महानगर में इस तरह का फ़लसफ़ा, क़िस्मत, मेहनत और सिर पर बुज़ुर्गों के आशीर्वाद से ही बन पाता है। जैसे हमारे सिर पर आँटी का था। यह आशीर्वाद सिर्फ़ पेइंग गैस्ट होने की वजह से ही नहीं था, बल्कि वक़्त ने जब आबोदाने की बदहाली दिखाई और हम नॉन-पेइंग हो गए, तब भी, आँटी का हाथ हमारे सिर पर रहा और हम गैस्ट की बजाय अब तो जैसे उनका ही एक परिवार थे।
जबकि, हमारे होने से घर में होने वाले ख़र्चों की भरपाई का हम भी एक अहम ज़रिया थे। लेकिन, आँटी ने बिना उफ़ किये, न सिर्फ़ छत बरक़रार रखी बल्कि, अपनी रसोई से हमें कभी भूखा न रहने दिया। वे हमेशा आशावान रहीं और कहतीं कि मुझे पूरा विश्वास है, जैसे ही आप के पास पैसा होगा तो आप बिना दिए भागेंगे नहीं।

उनका यह उधार, यह प्यार हमें 5 माह तक जिलाता रहा। हालात फेवरेबल नहीं हो पा रहे थे। मुम्बई से लौटने का तय कर लिया, क्योंकि नाहक भी भार बनना कोई अच्छी बात नहीं थी। आँटी ने वैसे ही बहुत आसरा दे रखा था। 1 जुलाई को आया था उनकी छत के तले, साल भर बाद 31 जुलाई की रात, वहाँ से चल पड़ने की रात थी।

उसके तीन दिन पहले एक संयोग यूँ हुआ कि छोटा सा एक काम मिला, किया, 4-5 माह बाद 800 ₹ की आमदनी इसी शहर ने दी, मानो जाते जाते, विदाई का नेंग दे रहा हो। ख़ैर, लक्ष्मी मेहनत की थी, माथे लगाई। 500 ₹ आँटी के हाथ रखे, कहा कि यह इस बेटे की ओर से माँ को छोटी सी कमाई, क्योंकि, पेइंग गैस्ट की जो बड़ी रकम है वह तो मैं अपने गृहनगर जा के ही भेज सकूँगा। आँटी ने हिचकते हुए वो रुपये लिये और बोलीं, "मुझे आप पर पूरा भरोसा है, मुझे ख़राब लग रहा कि आप जा रहे, लेकिन आपका सोचना भी सही है। बिना कमाई, ख़र्चा क्यों बढ़ाना?
लेकिन आप जब भी मुम्बई आयें, मेरे घर का दरवाज़ा आपके लिये हरदम खुला रहेगा। वहाँ से याद देना मेरे को, आँटी को भूलना नहीं।"
हमने भारी दिल से पैर छुए,  उनने "आशीर्वाद" कहा और हम लौट आये अपने शहर। पहुँच कर आँटी की सारी बक़ाया धनराशि भेजी, जो कुछ हज़ारों में थी। पर ज़ाहिर है, वह ऋण तो कभी नहीं चुका पाये जो उनकी भलमनसाहत, प्यार, आसरा, आशीर्वाद ने भर-भर के हमें दिया।

कुछ माह बाद जब मुम्बई लौटने के संयोग बने, दिल के दरवाज़े बेशक़ खुले थे, आँटी ख़ुश थीं। पर पेइंग गैस्टों से घर भरा पड़ा था। हमने अपना बसेरा कहीं और जमा लिया और मुम्बई के अलग अलग ठिकानों में रहे, उनके आशीर्वाद से  इस शहर में दूसरी पारी लम्बी जम गई, उतार-चढ़ाव आते रहे, मगर आशा का आसमान टिका रहा।

हम कहीं भी रहे, आँटी से जब-तब जा कर मिलते रहे। जब जाते, आँटी कुछ न कुछ ज़रूर खिलातीं और अपने ममत्व से हर बार निहाल करतीं। शादी-ब्याह हुआ तो आशीर्वाद मिला, ख़ुद का घर ख़रीदा, जहाँ एक बार उनके चरण भी पड़े, इतनी ख़ुशी हुई हमें और उन्हें भी जिसका हिसाब नहीं। जब बच्ची हुई तो उसे भी फ़ोन पर उनका आशीर्वाद मिला, हालांकि आमने-सामने काश मिल पाती। पर रिहाइश के बड़े फ़ासलों और ज़िन्दगी की भागदौड़ ने आने-जाने के मौके थोड़ा कम कर दिये।

इधर कोरोना काल के 2 मुश्किल सालों ने तो सबके ही लिये खाई सी बना दी, जिस पर रेल का बिछा पुल भी बेबस हो गया था। हम साल भर से फिर अपने गृहनगर में थमे हुए थे। सब थमा हुआ था, बस वक़्त ही था जो न रुकता है, न रुका था। हमें भी अब बड़ा वक़्त हो चुका था आँटी से मिले, यहाँ तक कि बात और सम्पर्क हुए। मगर इधर हम याद करते रहे, उधर वो भी ज़रूर ही करती होंगी। हमारे दरम्यान जुड़े जो लोग थे, उनसे राज़ी-ख़ुशी की ख़बर तो लग जाया करती थी। कई दफ़े सेहत बिगड़ने की भी ख़बर मिलती और दिल फ़िक्रमन्द हो जाता, मगर ज़्यादा कुछ न कर पाता।

उम्र भी एक अजब सी चीज़ है, जिस्म के मक़ान में पेइंग गैस्ट की तरह रखती है, पर ज़िन्दगी का किराया वसूल लेती है, वो भी नक़द, बिना किसी उधार के।
आँटी की तरह सब कहाँ होते हैं, न वक़्त न लोग, कि बेशर्त छत तले, पालें-पोसें।

इसी साल, पिछले माह, अक्टूबर की 18वीं को ख़बर आई कि 2-3 माह से आशा के आसमान पर मंडराते काले बादल कुछ यूँ घुमड़े कि दिन पर एक ख़त्म न होने वाली रात की चादर पड़ गई। जो आशा थी, वो अब तारा बन के टिमटिमाने लगी है। भारद्वाज अंकल उसे कह रहे थे, "रे आशा, अब तो तू मेरी तारा बन के ही साथ रह; अब किसी के, टी बी जोशी कह के चिढ़ाने की क्या परवाह !

हमारी प्यारी आँटी, आशा के आसमान का एक टिमटिमाता
तारा हैं अब।

|| स्मृति शेष, विनम्र श्रद्धाजंलि ||
    श्रीमति आशा बी. जोशी




In Loving Memory of My dear
Noble soul of Aunty.
Thanks to dear friend Hirendra Jha for publishing this memoir cum tribute in India's prominent Women mo monthly hindi magazine
Aadhi Aabadi.




Tuesday, September 1, 2015

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Sunday, July 12, 2015